सोचा है कभी - hindi poem about depression

सोचा है कभी / socha hai kabhi -hindi poem about depression & mental illness

Namstey friends welcome again on poetic flavour
  
डिप्रैशन एक ऐसी बीमारी है, जो हर मिनट लोगो की जान लेती जा रही है पर अफसोस यह है कि हमारे देश में इस पर कोई भी बात नहीं करना चाहता ,क्यूंकि ज्यादातर लोगो को पता ही नहीं है कि जैसे शरीर से सम्बन्धित बीमारियां होती है वैसे ही कुछ दिमाग या मन से सम्बन्धित बीमारियां भी होती है,और डिप्रैशन भी उसी तरह की एक मानसिक बीमारी है और इसे एक बीमारी की तरह ही देखा जाना चाहिए ,जिसका इलाज संभव है...

खैर आज मै यहां पर आपसे डिप्रैशन क्यों होता है ,क्या कारण है ..उनकी बात नहीं करने आया हूं, मै सिर्फ एक सवाल लेकर आया हूं कि किसी आदमी के मरने के बाद ही सब कुछ क्यों याद आता है लोगो को,
जो इंसान अब इस दुनिया में है हि नहीं उसकी कितनी भी तारीफ करो या उससे कितना भी प्यार करो ,,कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है ,

कुछ लोग तो यहां तक कहते है कि डिप्रैशन के कारण आत्महत्या करने वाले लोग बुजदिल ,और कायर होते है,
यदि ऐसा है तो 10 लाख लोग हर साल डिप्रेशन के कारण अपनी जान गंवा बैठते है,तो इतने सारे लोग तो बुजदिल नहीं हो सकते ना, यह सब कुछ कह देना बहुत आसान होता है पर उस वक़्त उस इंसान पे क्या गुजरता है ,वो बात सिर्फ वो ही जानता है, जो भी व्यक्ति डिप्रैशन या किसी भी मानसिक रोग से गुजरता है तो वो अपने मन की बात बताना चाहता है लोगो को ,पर वो बताता नहीं है क्योंकि उसे मालूम है यहां कोई भी उसे समझने वाला नहीं है ,और वो सब कुछ इतना उलझा हुआ होता है, की किसी के सामने बयान करना बहुत ज्यादा मुश्किल होता है, हालांकि मै यह नहीं कह रहा हूं कि आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान है ,,पर सारा दोष आत्महत्या करने वालो को भी तो नहीं दिया जा सकता है ना, कहीं ना कहीं तो यह हम सबकी असफलता है,इतने लोगो को हम गवां देते है पर कुछ कर नहीं पाते
यह कविता हर एक इंसान से एक छोटा सा सवाल पूछती है ,और वो सवाल यह है कि.. क्या ऐसे लोगो को हम सच में अपनाते है? 
कविता मन लगा के पढ़िएगा क्या पता आपके अंदर का इंसान जाग जाए,


Hindi poems about depression



#सोचा है कभी/socha hai kabhi...
Hindi poem on mental illness



सोचा है कभी! 
कुछ हंसते खेलते चेहरों के पीछे,
उदासी कितनी गहराई तक धंसी होती है
रोज मौत और बीच बीच में थोड़ी सी जिंदगी के बीच
उसकी थरथराहट भरी सांसे फंसी होती है
कैसे कोई विचारो का धुआं उसका वजूद इतना धुंधला कर जाता है,
आखिर कौनसी ऐसी पीड़ा होती है जिससे इंसान खुद ब खुद मर जाता है।

सोचा है कभी !
क्यों कोई इंसान हजारों की भीड़ में ,अकेलेपन का शिकार हो जाता है
खुशहाल जिंदगी होने के बावजूद क्यों उसपे खुद को खत्म कर लेने का भूत सवार हो जाता है
ना जाने कितना डर ..,कितना दर्द ..,वो सहता रहता होगा,
ज़िन्दगी के इस समुन्द्र को पार करने के लिए वो मौत की नाव में रोज बहता रहता होगा।
क्या अंदाज़ा है तुम्हे?
बार बार सिहरन पैदा करने वाले विचारो की 
वो उमड़ घुमड़ कितना झंकझोर देती होगी उसे,
कभी जानने की कोशिश की है ...
मन की वो उठा पटक कितने भीतर तक तोड़ देती होगी उसे।

सोचा है कभी ,हर पल खिला रहने वाला कोई इंसान
क्यों किसी मुरझाए फूल सा हो जाता है,,
जिसकी पंकुड़िया आस पास बिखरी होती है
और वो खुद टूटने की कगार पर होता है,
आखिर कितना दबाव होता होगा उस पर
जब वो खिलना तो चाहता है, लेकिन कोई हवा का झोंका 
पल भर में उसे जमीन पर गिरा देने को बेकरार रहता है
लगता है शायद उसके दिल और मन के बीच कोई भीषण तकरार रहता है !

सोचा है कभी !
लाउडस्पीकर कि तरह बजने वाला वो इंसान
अचानक लोगो से बाते छोड़ ...,घूंट घूंट के क्यों मरता है
मालूम है तुम्हे ?
अपने मन की बात वो सितारों से क्यों करता है
कुछ बची कुची उम्मीदों से उनके संग वो  ज़िन्दगी के नए ताने बाने बुनता है,
कोई सितारा उसकी बातों का जवाब नहीं देता हैं ,पर कम से कम खामोशी से उनकी बातो को तो सुनता है।

सोचा है कभी !
खुशियों को जेब में रखने वाला वो इंसान
क्यों इतना तन्हा हो जाता है,
की अंधेरे से भरी चारदीवारी के बीच वो जीना शुरू कर देता है,
कितनी तड़प मचती होगी उसके मन मस्तिष्क पे
जब कोई एक विचार रोज उसका खून पीना शुरू कर देता है।

सोचा है कभी !
कैसे कोई हंसमुख इंसान ,नकारात्मक माहौल में इतना फंस जाता है 
की सब खुले रास्ते भी उसे बन्द नजर आते है
वो  ज़िन्दगी को छोड़ उन रास्तों को क्यों चुन लेता है
क्या मालूम है तुम्हे?
वो फांसी के फंदे क्यों बुन लेता है
क्यों कोई इंसान,
थोड़े से प्यार के लिए तरसता है
तुम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कितना भयावह होता है वो मंजर.. 
जब अवसाद रूपी कोई बादल आंसुओ के साथ दिन रात बरसता है।

सोचा है कभी !
दूसरो को रास्ते दिखाने वाला वो राहगीर
क्यों इतना भटक जाता है
की सब कुछ छोड़ कर
एक दिन वो उन फांसी के फंदों पर लटक जाता है,
कहने को सौ बाते बनती है उसके जाने के बाद
लोगो का बेइंतेहा प्यार भी उमड़ता है 
पर महसूस किया है कभी, क्यों कोई इंसान
तुमसे इसी प्यार की उम्मीद करता है
जिसकी भूख से वो दिन रात मरता है 
पर तुम.... उस वक़्त उसे ,उसके हाल पे छोड़ देते हो
उसकी वो आखिरी उम्मीद भी एक झटके से तोड़ देते हो
मरने के बाद यह कह देना ,
अरे वो तो कमजोर था, उसमे हिम्मत नहीं थी
कितना आसान है ना तुम्हारे लिए।

पर सोचा है कभी ,वो इंसान जो आज मरा है
रोज ना जाने कितनी मौतें मरता होगा 
तुम्हे क्या मालूम कैसे वो अपने टूटे बिखरे ख्वाबों के
बदले ,कितने दुखों से समझौता करता होगा
सिर्फ उस इंसान को दोष दे देना कहां तक जायज है
जब समाज का यह संवेदनहीन रवैया इतना नाजायज है
क्या दोष उस समाज का नहीं है ?
जिसने अवसाद को कभी एक बीमारी माना ही नहीं ,
कितनी तकलीफ उठानी पड़ती है उस इंसान को, यह किसीने जाना ही नहीं।

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